'एक देश, एक चुनाव' के मसले पर छिड़ी राजनीतिक बहस, किसी ने किया समर्थन तो किसी ने बताया संविधान के खिलाफ
'एक देश, एक चुनाव' के मसले पर छिड़ी राजनीतिक बहस, किसी ने किया समर्थन तो किसी ने बताया संविधान के खिलाफ
केन्द्र में
नरेन्द्र मोदी सरकार की वापसी के बाद एक बार फिर भारत 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' (One Nation One Election) बहस छिड़ गई है। जहां समर्थक इसके फायदे गिना रहे हैं, वहीं विरोधियों का मानना है कि इससे नुकसान ही होगा। वर्ष 2003 में भी लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि सरकार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ
कराए जाने के मुद्दे पर गंभीरता से विचार कर रही है। उस समय भी केन्द्र में भाजपा
की ही सरकार थी। हालांकि विपक्ष के रुख देखते हुए नहीं लगता कि इस मसले पर
सर्वसम्मति बन पाएगी।
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वन नेशन-वन
इलेक्शन की चर्चा बार-बार होती है लेकिन उस पर आम सहमति बनाने की कोशिश काफी कम
मौकों पर हुई…आम सहमति बनने में अक्सर
राजनीतिक दलों का नफा-नुकसान आड़े आ जाता है। आइए जानते हैं कि आखिर वन नेशन-वन
इलेक्शन का आइडिया है क्या ?
VO 1- वन नेशन-वन इलेक्शन का मतलब है देश भर में एक साथ चुनाव कराना….यानि लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों का विधानसभा चुनाव एक साथ
कराना। 2014 में केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही मोदी सरकार इस आइडिया
का समर्थन कर रही है। इस आइडिया का समर्थन वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि वन नेशन-वन इलेक्शन का फार्मूला मोदी सरकार की उपज है बल्कि {GFX IN} चुनाव आयोग ने सबसे पहले 1983 को ये सुझाव
दिया था। इसके बाद जस्टिस बी पी जीवन रेड्डी की अगुवाई वाले लॉ कमीशन ने भी 1999
में वन नेशन-वन इलेक्शन का सुझाव दिया था। 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी
सरकार ने इस सुझाव को लेकर गंभीरता दिखाई, यही वजह थी कि 2015 में पार्लियामेंट की
स्टैंडिंग कमेटी ने भी वन नेशन वन इलेक्शन को व्यावहारिक तरीके से अपनाने की
सिफारिश की थी {GFX OUT}
वन नेशन-वन इलेक्शन का को लागू किया जाए या नहीं... इस पर अपनी राय देने के
लिए ये जानना जरूरी है कि आखिर इसे लागू करने का नफा-नुकसान क्या है। तो आइए सबसे
पहले बात करते हैं इससे होने वाले फायदे के बारे में
{GFX IN}
बार-बार होने
वाले चुनावी खर्चे से मुक्ति मिलेगी
बार-बार चुनाव की
तैयारियों से छुटकारा मिलेगा
केंद्र और राज्य
सरकारें एक साथ पॉलिसी बना सकती है
देश भर में एक ही
वोटर लिस्ट पर चुनाव होंगे
चुनाव ड्यूटी के
दौरान कर्मचारियों और सुरक्षा बलों की बार-बार तैनाती नहीं होगी
चुनावी प्रचार
में लगने वाले नेताओं का वक्त भी बचेगा {GFX OUT}
आइए अब जानते हैं
कि कुछ राजनीतिक दल वन नेशन-वन इलेक्शन का आखिर विरोध क्यों करते हैं
{GFX IN}
मतदान के वक्त
मतदाता एक ही पार्टी को वोट देंगे
देश भर में
केंद्र और अधिकतर राज्यों में एक ही पार्टी की सरकार बन जाएगी
एक तय समय पर
दोनों चुनाव कराने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा
राष्ट्रीय और
क्षेत्रीय दलों के बीच आपसी मतभेद बढ़ेंगे
राष्ट्रीय दलों
को फायदा होगा और क्षेत्रीय दलों का नुकसान होगा
राज्यों में
राष्ट्रपति शासन का गलत इस्तेमाल हो सकता है {GFX OUT}
ये वो तमाम तर्क
हैं जिसके कारण अक्सर वन नेशन-वन इलेक्शन का विरोध होता है। ऐसा नहीं है कि वन
नेशन-वन इलेक्शन जैसा पहले कभी कुछ था ही नहीं। अगर इतिहास के पन्नों को पलटें तो
पता चलेगा कि {GFX IN} 1951-52, 1957,
1962, और 1967 में देश भर में एक साथ लोकसभा और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव
कराए गए थे, लेकिन ये सब वन नेशन-वन इलेक्शन के आइडिया के कारण नहीं हुआ था बल्कि
उस वक्त केंद्र और लगभग सभी राज्यों में एक साथ कांग्रेस की सरकार बनी थी और 1967
तक सभी ने अपने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया था। {GFX OUT}
{GFX IN}
अब सवाल ये उठता
है कि इस फार्मूले को लागू कैसे किया जाए
वन नेशन-वन
इलेक्शन के लिए संविधान में संशोधन करना होगा
लोकसभा चुनाव
पहले से तय तारीखों पर शुरू और खत्म हो
प्रधानमंत्री पद
के लिए अविश्वास और विश्वास प्रस्ताव एक साथ लाए जाएं
सदन भंग होने की
स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाया जाए
सदन के कार्यकाल
में ज्यादा वक्त होने पर उसी सदन का चुनाव हो {GFX OUT}
वन नेशन-वन
इलेक्शन के अपने फायदे और अपने नुकसान हैं...ये सुनने में जितना आसान लगता है इसको
व्यावहारिक तौर पर लागू करना उतना ही मुश्किल है...लेकिन अगर इस पर राजनीतिक दलों
की आम सहमति बनती है तो वाकई ये चुनावी इतिहास का मील का पत्थर साबित होगा।
नई सरकारी में असमंजस की
कहानी शुरू हो गई...300 का आंकड़ा पार कर
मोदी सरकार सत्ता पर तो काबिज हो गई...लेकिन देश को मजबूती की राह देने की
कवायद अभी मोदी सरकार के लिए इतनी आसान नहीं है...केंद्र सरकार के सामने विपक्ष
मजबूत बेशक न हो ...पर विरोधी दल
विरोध करने में कतैयी पीछे नहीं है...और इसका जीता जागता उधारण देखना हो तो सरकार
की सर्वदलीय बैठक के फैसले का नजारा देखिए...वन नेशन वन इलेक्शन का विरोध बेसक न
हो पर, जवाब पूरी तरह से साफ नहीं है...देश में पिछले काफी समय
से एक साथ विधानसभा और लोकसभा चुनाव कराने को लेकर बहस छिड़ी है….इसी बहस को आगे बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने
सभी राजनीतिक दलों के प्रमुखों की बैठक बुलाई...लेकिन इस बैठक में न ममता दिखी और
न माया....यानि वन नेशन वन इलेक्शन पर ममता ने श्वेतपत्र अडी तो माया इसे कह दिया
छलावा..इस बैठक में राष्ट्रीय
पार्टिय, क्षेत्रीय पार्टियों के अध्यक्ष को शामिल होना था..लेकिन
कुछ हुए और कुछ नहीं....हालांकि बीजेपी के इस मिशन की विरोध तो कांग्रेस भी नहीं
करना चाहती लेकिन रास्ता उसका भी कोई साफ नहीं है....इससे पहले विपक्षी रुख तय
करने के लिए कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी पार्टियों ने इसपर साझा बैठक बुलाई थी...लेकिन
वह रद्द हो गई है..हालांकि, NCP प्रमुख शरद पवार ने
इस बैठक में शामिल हुए....इस बैठक में पीएम देश में एक चुनाव के ऐजेंडे पर बैठक
करने के लिए गृह मंत्री, रक्षा मंत्री, संसदीय
कार्यमंत्री शामिल हुए...जबकि तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और बंगाल की मुख्यमंत्री
ममता बनर्जी, बीएसपी प्रमुख मायावती, दिल्ली के
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस बैठक किनारा कर लिया...हालांकि सत्ता पक्ष वन
नेशन वन इलेक्शन का पूरजोर समर्थन कर रही है... अगर गैर एनडीए दल की बात
करें तो जगनमोहन रेड्डी, नवीन पटनायक, केसीआर की तरफ से
उनके बेटे केटीआर और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव भी बैठक में शामिल हुए...अरविंद
केजरीवाल की जगह इस बैठक में राघव चड्डा शामिल होंगे...इस बैठक में वन नेशन वन
पोल के अलावा भी कई मुद्दों पर बात हुई... 2022 में भारत अपनी
आजादी के 75 साल पूरा कर लेगा.... इसे मोदी सरकार
बड़े रूप में मनाना चाहती है.... जिस पर सभी दलों
से बात हुई है...साथ ही महात्मा गांधी की 150वीं जयंती का
जश्न और सदन में कामकाज के सुचारू रूप से चलने को लेकर भी बैठक में प्रधानमंत्री ने
बात की..अगर सर्व सहमीति बीजेपी
का एक देश, एक चुनाव ये फॉर्मूला फिट बैठता है तो... इसके तहत पूरे देश
में 5 साल में एक बार ही चुनाव होगा…सरकार का इस संबंध में तर्क है इससे न सिर्फ समय की बचत
होगी, बल्कि देश को बार-बार पड़ने वाले आर्थिक बोझ से भी मुक्ति
मिलेगी...हालांकि ये फॉमूला सेट होगा या नहीं ये अभी दूर कोड़ी है.
आर्थिक बचत
मोदी सरकार ने वन नेशन वन
इलेक्शन का फॉर्मूला सोच तो लिया...लेकिन विपक्ष इस पर क्या गुल खिलाता है देखना
दिलचस्प है...क्योंकि हां करने के बाद कांग्रेस का बैठक मुकरना इसपर शंसय पैदा
करता है...लेकिन सवाल ये भी है कि, अगर सरकारी खजाने पर बोझ करने के लिये कोई
सरकारी प्लान बनता भी तो, विपक्ष इसका
विरोध क्यों करना चाहता है....एक जानकारी के मुताबिक, 2009 के लोकसभा चुनाव
में 1100 करोड़ और 2014 के लोकसभा चुनाव
में 4000 करोड़ रुपए खर्च
हुआ था.......इसके इतर अगर उम्मीदवारों के खर्च की बात करें
तो 2014 के लोकसभा चुनाव
में कुल 30 हजार करोड़ का
खर्च हुआ था...जो 2019 में बढ़कर करीब 60 हजार करोड़ हो
गया।
बाइट-पीएल पूणिया, नेता कांग्रेस,
सीमित आचार संहिता
एकसाथ चुनाव से दूसरा
सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि राज्यों को बार-बार आचार संहिता का सामना नहीं करना
पड़ेगा...इससे सरकारी कामकाज में भी रुकावट नहीं आएगी। बार-बार चुनाव कराने से
शिक्षा क्षेत्र के कामकाज भी प्रभावित होते हैं...ऐसे शिक्षा के क्षेत्र में होने
वाले नुकसान से भी मुक्ति मिलेगी...।।
कालेधन के प्रवाह पर रोक
लोकसभा चुनाव हो या
विधानसभा चुनाव, इनमें कालेधन का उपयोग बड़ी मात्रा में होता है। यदि एकसाथ
चुनाव होंगे तो निश्चित रूप से इस पर अंकुश लगेगा। देखने में भी आता है कि
उम्मीदवार अपनी तय सीमा से काफी ज्यादा राशि खर्च करते हैं, हालांकि रिकॉर्ड
नहीं होने से उन पर कोई कार्रवाई भी नहीं हो पाती...।
बढ़ेगा सौहार्द
आमतौर पर चुनाव के दौरान
देखा जाता है कि धर्म और जाति जैसे मुद्दे प्रमुखता से उठाए जाते हैं...इस तरह के
मुद्दों से होने वाला ध्रुवीकरण लोगों के बीच में दूरियां ही पैदा करता है...अगर चुनाव
बार-बार नहीं होंगे तो इस तरह के मुद्दे भी बार-बार नहीं उठेंगे, इससे लोगों के
बीच दूरियां कम होंगी...।।
आम आदमी को परेशानी से मुक्ति
इसके साथ ही बार-बार चुनाव होने से चुनावी शोरशराबा, रैली, आमसभाएं, वीआईपी के आगमन के चलते आम आदमी को काफी
परेशानी झेलनी पड़ती है.... इस तरह एक चुनाव के बाद उन्हें फिर से यह मुश्किल नहीं
झेलनी पड़ेगी। चूंकि एक ही बार वोट डालना है, अत: मतदान के
दौरान बाहर रहने वाले लोग भी वोटिंग के लिए अपने मूल स्थानों पर आ सकेंगे...वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर जहां विपक्ष अपना तानाबाना
बुनने में लगा है वहीं...बीजेपी इसके फायदे गिनवाने में जुटी है...हालांकि, अगर
इसका नफा है तो कुछ राजनैतिक दलों को इसका नुकसान भरना पड़ सकता है...इसलिए
कांग्रेस ने तो इससे दूरी ही बना ली, सत्ता के गलियारे में शोर
इसी बात का है कि वन नेशन वन इलेक्शन पर आखिर क्या फैसला होना चाहिए क्योंकि,
विपक्ष जहां इसका समर्थन करने की बात कह रहा है तो इससे दूरी भी बनाता दिख रहा
है...क्यों वन नेशन वन इलेक्शन के बाद क्षेत्रीय पार्टीयों पर संकट के बादल मंडरा
सकता है...
1.क्षेत्रीय पार्टियों पर संकट
अगर देश में एकसाथ चुनाव
होते हैं सबसे बड़ा नुकसान क्षेत्रीय पार्टियों को होगा....जहां क्षेत्रीय
पार्टियां सीमित संसाधनों के साथ चुनाव लड़ेंगी,....वहीं
राष्ट्रीय पार्टियों इस मामले में उनसे कई गुना आगे होंगी.. ऐसे वे राष्ट्रीय
पार्टियों का मुकाबला नहीं कर पाएंगी..इसलिए समूचा विपक्ष इसका विरोध करने पर अड़ा
है हालांकि उन्होंने बैठक में हिस्सा जरूर लिया....लेकिन वन नेशन वन इलेक्शन पर
रुख साफ विरोधी वाला ही रहा...2. खत्म हो जाएंगे
क्षेत्रीय मुद्देजब लोकसभा चुनाव के साथ
विधानसभा चुनाव भी होंगे तो क्षेत्रीय मुद्दे खामोश हो जाएंगे....चुनावी सभाओं में
क्षेत्रीय से ज्यादा राष्ट्रीय मुद्दों की चर्चा होगी.... इसकी झलक 2019 के चुनाव देखने को मिली...जहां पाकिस्तान में
एयर स्ट्राइक जैसा मुद्दा ही पूरे समय छाया रहा....उम्मीदवार इस चुनाव में खामोश
हो गए थे....पूरे समय मोदी की ही चर्चा रही.... ऐसी भी आशंका है कि चुनाव मुद्दों
पर न होकर व्यक्ति केन्द्रित हो सकते हैं...।।
चुनाव परिणाम में देरी
एक आशंका यह भी जताई जा
रही है कि एकसाथ चुनाव होने की स्थिति में चुनाव परिणाम देरी से प्राप्त होंगे....मतगणना
के दौरान सीमित सरकारी मशीनरी के चलते रिजल्ट देरी से मिलेंगे... इसके लिए सुरक्षा
व्यवस्था भी चाक-चौबंद करनी होगी...।।
इस मसले पर लॉ कमीशन पहले
ही कह चुका है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के आगामी चुनाव एक साथ कराए जाने के
लिए नए ईवीएम और पेपर ट्रेल मशीनों को खरीदने के लिए 4500 करोड़ रुपए से ज्यादा
की जरूरत होगी....मुश्किलें और भी हैं मान भी लिया जाए कि एक साथ चुनाव शुरू करवा
दिया जाए....जो कि चार चुनावों में पहले हो भी चुका है.....लेकिन, क्षेत्रीय दलों
के दौर में यह विचार दूर की कौड़ी ही दिखाई देता है.अगर एक साथ चुनाव करवाए
जाने के बाद भी कुछ राज्यों में किसी भी दल को बहुमत मिलने की स्थिति नहीं बनती....और
वहां सरकार समय से पहले गिर जाती है तो ऐसी स्थिति में क्या होगा? ....क्या वहां
शेष समय के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा या फिर अल्पमत सरकारों को ही शासन
चलाने दिया जाएगा?
प्रमोद शर्मा
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