सिर ढकने की मनाही वनाम तन ढकने की मनाही का क्रूर खेल
कैसे एक धर्म और उसकी भाषा संस्कृति को दूसरे धर्म और उसकी भाषा संस्कृति से बेहतर माना जा सकता है। कैसे हिन्दू -मुसलमान ,सिख और ईसाई धर्म के लोग एक हो सकते हैं और कैसे इन धर्मो की जीवन शैली ,रहन ,सहन ,खान ,पान और पहनावे एक जैसे हो सकते हैं ? फिर कैसे इनकी मान्यताएं एक जैसी हो सकती है ? इन सभी धर्मो में सिर्फ एक ही समानता हो सकती है कि वे जिस देश में रहते हैं उस देश के प्रति वफादार हों ,देशभक्त हों और अपनी मातृभूमि के प्रति समर्पित हों। और भारत जब अनेकता में एकता वाला देश है तो फिर पहनावे पर विवाद क्यों ? और फिर किसका धर्म बड़ा है और किसका छोटा इसका निर्णय भला कौन करे !
पिछले कुछ महीने से देश के भीतर हिजाब को लेकर जो खेल चल रहा है उसके पीछे का सच क्या है ? अगर देश के भीतर एक धर्म की महिलाये ,लडकियां अपना सिर ढकने के लिए हिजाब का सहारा लेती है तो इस पर बवाल क्यों ? क्या अपने शरीर को ढकना कोई अपराध है या फिर कोई आतंकी गतिविधियां है ? इस्लाम में महिलाओं को शरीर ढकने की प्रथा है तो इस पर ऐतराज क्यों ? इसी देश में अगर संस्कृत विद्यालय चलते हैं और उर्दू विद्यालय भी चलते हैं। दक्षिण भारत में भी अपनी भाषाओँ को जिवंत रखने के लिए तमाम भाषाओँ की पढाई होती है उस पर तो कोई विवाद नहीं। फिर हिजाब पर विवाद क्यों ? जाहिर है मौजूदा समय में ये विवाद चुनावी खेल के तहत किया गया। मुस्लिम वोटरों के खिलाफ हिन्दू वोटरों को एक साथ आने के लिए किया गया। कट्टर हिन्दुओं ने हिजाब की तुलना आतंक से किया है। क्या यह सच है ? इसी तरह हिन्दुओं, सिखों और ईसाईयों के पहनावे ,रहन -सहन और खान -पान पर भी सवाल उठाये जा सकते हैं।
यह बात और है कि आधुनिक शिक्षा की शुरुआत अंग्रेजों की देन है। उसी ने ड्रेस कोड की शुरुआत की। यह भी सच है कि स्कूलों में एक ही पोशाक में आने वाले बच्चो के मन में किसी ऊंच नीच की भावना नहीं होती। किसी धर्म की पहचान नहीं होती ,समानता का भाव होता है। लेकिन क्या उसी स्कूल में पढ़ने वाले हिन्दू बच्चे अगर चन्दन लगाकर जाते हैं ,चोटी बढाकर जाते हैं और शादी शुदा कोई लड़की मांग में सिंदूर लगाकर जाती है तब इसे आप क्या कहेंगे ? क्या ईसाई बच्चे क्रॉस लगाकर और सिख बच्चे कृपाण लगाकर स्कूल नहीं जाते ?
इसका मतलब ये है कि इस देश में सबकुछ चलता है। मतलब ये भी है बहुसंख्यक आबादी अल्पसंख्यक आबादी पर दबाब डालती है कि उसके अनुसार ही रहा जाए ,जो उसके अनुसार नहीं चलता उसे टारगेट किया जाता है। यहां यह भी बताना जरुरी है यह लड़ाई केवल हिन्दू -मुसलमानो की ही नहीं है। जो लोग हिन्दू हैं और सनातनी परम्परा को मानते हैं उनके बीच भी यही लड़ाई वर्षों से चली आ रही है। चार वर्णो की शुरुआत को आप इसी रूप में देख सकते हैं। ब्राह्मणो के कई कर्मो ने वाकई इस देश को ,इस समाज को और इस मानव जाति को जितना कलंकित किया है ,भगवान् भी सरमा जाएँ।
प्रतीकात्मक तस्वीर
विडंबना देखिए कि एक हिन्दू सवर्ण दूसरे हिन्दू अवर्ण को देखना नहीं चाहता। उसके साथ खान -पान नहीं रखता ,नाते रिश्तेदारी नहीं रखता। मंदिरों में अवर्णो को प्रवेश नहीं करने देता। गांव के बाहर मलिन बस्तियों में उसे रहने को मजबूर किया जाता है। लेकिन जब वोट लेने की बात आती है तब सवर्णो का ऐलान होता है कि सब हिन्दू एक हो जाए। गजब की गाथा है ये। सनातन परम्परा में महादेव को देवो का देव कहा गया है। वे अजन्मा हैं। अविनाशी हैं। उनकी भक्ति में कोई आडम्बर नहीं। भगवान् विष्णु और महादेव एक दूसरे में ही रमे रहते हैं। लेकिन यहां भी खेल विचित्र है। शिव यानी महादेव को मानने वाले शैव कहलाते हैं। उनका जीवन शैली अलग होता है। शिव और शक्ति एक दूसरे में समाये हुए हैं। लेकिन शक्ति यानी पार्वती ,दुर्गा ,काली के पूजक शाक्त कहलाते हैं। वे शैव को महत्व नहीं देते। शिव की ही एक भक्ति धारा औघड़ की है। उनका रहन सहन कुछ और है और उनकी मान्यता है कि उनके अलावे शिव का कोई अन्य भक्त नहीं। कभी -कभी तो शिव के ही इन भक्तों के बीच झगडे हो जाते हैं। ठीक यही कहानी अखाड़ों की है। जब ईश्वर एक ही है तो अखाड़े अलग -अलग क्यों ?
तो कहानी ये बनती है कि हिजाब के नाम पर जो कुछ भी होता दिख रहा है वह सब एक राजनीतिक खेल से ज्यादा कुछ भी नहीं। अगर मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनना चाहती है तो इस विवाद क्यों ? आखिर वह अपने सिर को ही तो ढकना चाहती है। सिर ढकने की इस लड़ाई के बीच भारत के इतिहास पर नजर डालें तो एक दौर ऐसा भी था जब महिलाओं को अपने स्तन ढकने की भी मनाही थी। 19वीं सदी में दलित महिलाओं की छाती पर कपड़ा या ब्लाउज दिखते ही चाकू से खींचकर फाड़ दिया जाता था। क्या देश के धर्मालम्बियों को यह सब पता नहीं है ?
18 वीं शताब्दी 1729 में मद्रास प्रेसीडेंसी में त्रावणकोर साम्राज्य के राजा थे मार्थंड वर्मा। साम्राज्य बना तो नियम-कानून बने। टैक्स लेने का सिस्टम बनाया गया। जैसे आज हाउस टैक्स, सेल टैक्स और जीएसटी, लेकिन एक टैक्स और बनाया गया...ब्रेस्ट टैक्स मतलब स्तन कर। ये कर दलित और ओबीसी वर्ग की महिलाओं पर लगाया गया। ये ब्राह्मणो का अजीब खेल था। और अजीब खेल उस राजा का भी था। आज की तारीख में उसे आप क्या कहेंगे ,आप ही जाने।
राज कानून के मुताबिक त्रावणकोर में निचली जाति की महिलाएं सिर्फ कमर तक कपड़ा पहन सकती थी। अफसरों और ऊंची जाति के लोगों के सामने वे जब भी गुजरती उन्हें अपनी छाती खुली रखनी पड़ती थी। अगर महिलाएं छाती ढकना चाहें तो उन्हें इसके बदले ब्रेस्ट टैक्स देना पड़ता था। इसमें भी दो नियम थे। जिसका ब्रेस्ट छोटा उसे कम टैक्स और जिसका बड़ा उसे ज्यादा टैक्स। टैक्स का नाम रखा था मूलाक्रम।जमींदारों के घर काम करते वक्त दलित महिलाएं न स्तन ढक सकती थीं और न ही छाता लेकर बैठ सकती थीं। अंग्रेजो का ज़माना था और राजाओं की ठसक। इसे आप जुर्म कहेंगे या फिर हिन्दू मान्यताये !
यह घटिया रिवाज सिर्फ महिलाओं पर नहीं, बल्कि पुरुषों पर भी लागू था। उन्हें सिर ढकने की परमिशन नहीं थी। अगर वे कमर के ऊपर कपड़ा पहनना चाहें और सिर उठाकर चलना चाहें तो इसके लिए उसे अलग से टैक्स देना पड़ता था । यह व्यवस्था ऊंची जाति को छोड़कर सभी पर लागू थी, लेकिन वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे होने के कारण निचली जाति की दलित महिलाओं को सबसे ज्यादा प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी। और खासकर नादर जाति की महिलाये इस जुर्म का ज्यादा शिकार थी। अगर को जवान नादर जाति की महिला अपना स्तन ढक लेती थी तो इसकी सुचना राजपुरोहित तक पहुँच जाती थी। पुरोहित एक लंबी लाठी लेकर चलता था जिसके सिरे पर एक चाकू बंधी होती थी। वह उसी से ब्लाउज खींचकर फाड़ देता था। उस कपड़े को वह पेड़ों पर टांग देता था। यह संदेश देने का एक तरीका था कि आगे कोई ऐसी हिम्मत न कर सके। बता दें कि केरल जैसे शिक्षित राज्य में महिलाओं को ब्लाउज पहनने का अधिकार 150 सालों के संघर्ष के बाद मिला। नादर जाति की महिला नांगेली ने इसका विरोध किया और अपनी दोनों छाती को काटकर अफसर और पुरोहित के सामने रख दिया और इस दुनिया से चल बसी। नगली का त्याग निर्णायक साबित हुआ।
बता दें कि 19वीं शताब्दी की शुरुआत में चेरथला में नांगेली नाम की एक महिला थी। स्वाभिमानी और क्रांतिकारी। उसने तय किया कि ब्रेस्ट भी ढकूंगी और टैक्स भी नहीं दूंगी। नांगेली का यह कदम सामंतवादी लोगों के मुंह पर तमाचा था। अधिकारी घर पहुंचे तो नांगेली के पति चिरकंडुन ने टैक्स देने से मना कर दिया। बात राजा तक पहुंच गई। राजा ने एक बड़े दल को नांगेली के पास भेज दिया। राजा के आदेश पर टैक्स लेने अफसर नांगेली के घर पहुंच गए। पूरा गांव इकट्ठा हो गया। अफसर बोले, "ब्रेस्ट टैक्स दो, किसी तरह की माफी नहीं मिलेगी।" नांगेली बोली, 'रुकिए मैं लाती हूं टैक्स।' नांगेली अपनी झोपड़ी में गई। बाहर आई तो लोग दंग रह गए। अफसरों की आंखे फटी की फटी रह गई। नांगेली केले के पत्ते पर अपना कटा स्तन लेकर खड़ी थी। अफसर भाग गए। लगातार ब्लीडिंग से नांगेली जमीन पर गिर पड़ी और फिर कभी न उठ सकी।
नांगेली की मौत के बाद उसके पति चिरकंडुन ने भी चिता में कूदकर अपनी जान दे दी। भारतीय इतिहास में किसी पुरुष के 'सती' होने की यह एकमात्र घटना है। इस घटना के बाद विद्रोह हो गया। हिंसा शुरू हो गई। महिलाओं ने फुल कपड़े पहनना शुरू कर दिए। मद्रास के कमिश्नर त्रावणकोर राजा के महल में पहुंच गए। कहा, "हम हिंसा रोकने में असफल साबित हो रहे हैं कुछ करिए।" राजा बैकफुट पर चले गए। उन्हें घोषणा करनी पड़ी कि अब नादर जाति की महिलाएं बिना टैक्स के ऊपर कपड़े पहन सकती हैं।
नादर जाति कि महिलाओं को स्तन ढकने की इजाजत मिली तो एजवा, शेनार या शनारस और अन्य छोटी समाज की महिलाओं ने भी विद्रोह किया। यह विद्रोह लम्बे समय तक चला। इसकी आगे की गाथा और भी विचित्र है जब उच्च जाति की महिलाये इस विद्रोह को दबाने के लिए सड़कों पर उत्तरी। उच्च जाति की महिलायें भी नहीं चाहती थी कि दलित महिलायें ब्लॉउज पहने। एक महिला दूसरी महिला के खिलाफ कैसे खडी थी यह भी कम रोचक नहीं। वर्षों तक यह आंदोलन चलता रहा और अंत में जब अंग्रेजों के हाथ में सत्ता आयी तब जाकर दलित महिलाओं को ब्लाउज पहनने का अधिकार मिला और राजा को भी यह नियम हटाना पड़ा।
राज कानून के मुताबिक त्रावणकोर में निचली जाति की महिलाएं सिर्फ कमर तक कपड़ा पहन सकती थी। अफसरों और ऊंची जाति के लोगों के सामने वे जब भी गुजरती उन्हें अपनी छाती खुली रखनी पड़ती थी। अगर महिलाएं छाती ढकना चाहें तो उन्हें इसके बदले ब्रेस्ट टैक्स देना पड़ता था। इसमें भी दो नियम थे। जिसका ब्रेस्ट छोटा उसे कम टैक्स और जिसका बड़ा उसे ज्यादा टैक्स। टैक्स का नाम रखा था मूलाक्रम।जमींदारों के घर काम करते वक्त दलित महिलाएं न स्तन ढक सकती थीं और न ही छाता लेकर बैठ सकती थीं। अंग्रेजो का ज़माना था और राजाओं की ठसक। इसे आप जुर्म कहेंगे या फिर हिन्दू मान्यताये !
यह घटिया रिवाज सिर्फ महिलाओं पर नहीं, बल्कि पुरुषों पर भी लागू था। उन्हें सिर ढकने की परमिशन नहीं थी। अगर वे कमर के ऊपर कपड़ा पहनना चाहें और सिर उठाकर चलना चाहें तो इसके लिए उसे अलग से टैक्स देना पड़ता था । यह व्यवस्था ऊंची जाति को छोड़कर सभी पर लागू थी, लेकिन वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे होने के कारण निचली जाति की दलित महिलाओं को सबसे ज्यादा प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी। और खासकर नादर जाति की महिलाये इस जुर्म का ज्यादा शिकार थी। अगर को जवान नादर जाति की महिला अपना स्तन ढक लेती थी तो इसकी सुचना राजपुरोहित तक पहुँच जाती थी। पुरोहित एक लंबी लाठी लेकर चलता था जिसके सिरे पर एक चाकू बंधी होती थी। वह उसी से ब्लाउज खींचकर फाड़ देता था। उस कपड़े को वह पेड़ों पर टांग देता था। यह संदेश देने का एक तरीका था कि आगे कोई ऐसी हिम्मत न कर सके। बता दें कि केरल जैसे शिक्षित राज्य में महिलाओं को ब्लाउज पहनने का अधिकार 150 सालों के संघर्ष के बाद मिला। नादर जाति की महिला नांगेली ने इसका विरोध किया और अपनी दोनों छाती को काटकर अफसर और पुरोहित के सामने रख दिया और इस दुनिया से चल बसी। नगली का त्याग निर्णायक साबित हुआ।
बता दें कि 19वीं शताब्दी की शुरुआत में चेरथला में नांगेली नाम की एक महिला थी। स्वाभिमानी और क्रांतिकारी। उसने तय किया कि ब्रेस्ट भी ढकूंगी और टैक्स भी नहीं दूंगी। नांगेली का यह कदम सामंतवादी लोगों के मुंह पर तमाचा था। अधिकारी घर पहुंचे तो नांगेली के पति चिरकंडुन ने टैक्स देने से मना कर दिया। बात राजा तक पहुंच गई। राजा ने एक बड़े दल को नांगेली के पास भेज दिया। राजा के आदेश पर टैक्स लेने अफसर नांगेली के घर पहुंच गए। पूरा गांव इकट्ठा हो गया। अफसर बोले, "ब्रेस्ट टैक्स दो, किसी तरह की माफी नहीं मिलेगी।" नांगेली बोली, 'रुकिए मैं लाती हूं टैक्स।' नांगेली अपनी झोपड़ी में गई। बाहर आई तो लोग दंग रह गए। अफसरों की आंखे फटी की फटी रह गई। नांगेली केले के पत्ते पर अपना कटा स्तन लेकर खड़ी थी। अफसर भाग गए। लगातार ब्लीडिंग से नांगेली जमीन पर गिर पड़ी और फिर कभी न उठ सकी।
नांगेली की मौत के बाद उसके पति चिरकंडुन ने भी चिता में कूदकर अपनी जान दे दी। भारतीय इतिहास में किसी पुरुष के 'सती' होने की यह एकमात्र घटना है। इस घटना के बाद विद्रोह हो गया। हिंसा शुरू हो गई। महिलाओं ने फुल कपड़े पहनना शुरू कर दिए। मद्रास के कमिश्नर त्रावणकोर राजा के महल में पहुंच गए। कहा, "हम हिंसा रोकने में असफल साबित हो रहे हैं कुछ करिए।" राजा बैकफुट पर चले गए। उन्हें घोषणा करनी पड़ी कि अब नादर जाति की महिलाएं बिना टैक्स के ऊपर कपड़े पहन सकती हैं।
नादर जाति कि महिलाओं को स्तन ढकने की इजाजत मिली तो एजवा, शेनार या शनारस और अन्य छोटी समाज की महिलाओं ने भी विद्रोह किया। यह विद्रोह लम्बे समय तक चला। इसकी आगे की गाथा और भी विचित्र है जब उच्च जाति की महिलाये इस विद्रोह को दबाने के लिए सड़कों पर उत्तरी। उच्च जाति की महिलायें भी नहीं चाहती थी कि दलित महिलायें ब्लॉउज पहने। एक महिला दूसरी महिला के खिलाफ कैसे खडी थी यह भी कम रोचक नहीं। वर्षों तक यह आंदोलन चलता रहा और अंत में जब अंग्रेजों के हाथ में सत्ता आयी तब जाकर दलित महिलाओं को ब्लाउज पहनने का अधिकार मिला और राजा को भी यह नियम हटाना पड़ा।
हिजाब की मौजूदा राजनीति को देखकर इतिहास को फिर से दोहराने की कोशिश की जा रही है। इस खेल को तुरंत सरकार को ख़त्म करना चाहिए। कट्टर समाज और सरकार के ऐसे फैसले जो समाज को बांटता हो उसे ख़त्म करना चाहिए। हम आधुनिक समाज में रहते हैं। वैज्ञानिक युग में रहते हैं। जो विज्ञानं का वरण नहीं करेगा वह खुद पीछे चला जाएगा। लेकिन किसी पर बंदिश कभी न्यायपूर्ण नहीं माना जा सकता।
सभागार: अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार
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